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इस शहर में / हरे प्रकाश उपाध्याय

इस शहर में
 वह साइकिल चलाता रहा
धुल खाता रहा
डांट खाता रहा
दांत निपोरता रहा अपनों के आगे
दुश्मनों को भौंहे ताने खोजता रहा
दफ्तरों में घूमता रहा
दरख्वास्तें लिखवाता रहा
बूढे और बच्चों को सडकें पार कराता रहा
मजूरी करता रहा
रोटी, लंगोटी
कमीज -पजामे, छत
और पहचान के लिये लडता रहा
हारता रहा जीतता रहा
 बैठा नहीं चलता रहा
उठता रहा- गिरता रहा
बारिश गर्मी जाडा
ठिठका कभी नहीं
सूखता रहा भीगता रहा
कांपता रहा अकडता रहा
संकोच नहीं किया कभी
जब जैसी जरूरत
मांगता रहा देता रहा
ओर एक दिन वह गायब हो गया शहर में
वह अखबार से नहीं
सबसे गन्दी बस्तियों में मचे कोलाहल से पता चला
असहाय बूढों और यतीम बच्चों की उदासी से पता चला
पता चला फटी साडी वाली औरतों की रूलाई से
शहर के रईसों के गुस्से से पता चला
कि इस शहर में अपनी आदतें
अपनी इच्छायें अपने सपने अपनी कविताऐं
और अपनी जिद जैसी न जाने कितनी चीजें
जो यहां के बच्चों को बिगाड सकती हैं सौपकर
वह बदमाश मेरा दोस्त वहा
बिना किसी को बताये
कहीं चला गया एक दिन.......!