एक आत्म वक्तव्य
सफ़र, अन्न का
खेतों से निवाले तक
सपनों का
पलकों से हथेली तक
शब्दों का
क्रिया-पद से विशेषण तक
सफ़र, कविता का
अक्षरों से,
हे कविता के अदृश्य लोक,
तुम्हारे हृदय तक
इस जटिल और कुटिल समय में
एक बालिग़ लड़की का हाथ
पकड़ लेने जितना कठिन
या कि आसान
इस सफ़र में,
हे कविता के विलुप्त नागरिक,
तुम्हारी ही ओर से बोलता हूँ
तुम्हारे ही राग को देता हूँ कण्ठ
तुम्हारे ही दुःख की आग में दहकता हूं
उल्लसित होता हूँ तुम्हारी ही जय में
तुम्हारी ही पराजय में बिलखता हूँ
व्यवस्था की क्रूरता, सबसे पहले
चिन्हित करता हूँ, पिता में,
बाज़ार की चमक में घिसे सिक्के-सा
उछालता हूँ प्रेम
और अपराजित उम्मीद के साथ,
हे कविता के अन्तिम प्रेमी,
तुम्हारी ही चौखट तक लौटता हूँ
युगों से तुम्हारी ही लड़ाई लड़ता
मैं कवि-कुल-शील, ख्यातिलब्ध
राजेश, मंगलेश, अरुण,
केदार, बद्री नहीं
मैं काशी के घाटों पर
वृन्दावन की उदासी हूँ,
आँखों में आँखे डाले, कविता में
नैतिकता का साहस हूँ, और
अन्ततः यह, मेरे प्रिय, कि
कलकत्ता की रगों में दौडता
बनारस हूँ ।