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इस हालत में भी / वेणु गोपाल


इन दिनों रोज़ ही ऎसा होता है। मीलों
ज़मीन रौंदकर
किसी दोस्त चेहरे के सामने पहुँचता हूँ और
वहाँ एक तगड़ा ताला जड़ा होता है। और
चाबी के नाम पर
उस वक़्त
आकाश में बादल तक नहीं होते।

एकदम सार्वजनिक ढंग से
घुटनों-घुटनों रेत में धँसा
कसमसाता
उझक-उझक कर
आत्मीय आँखों में झाँकता हूँ-- जहाँ
हमेशा ही
सिकुड़कर
पोखर बनने पर आमादा
समंदर होता है और
नमक-बोझल हवाओं में
डूबते सूरज का उजाला
बाढ़ में बहे जाते किसी मासूम बच्चे-सा
बेचारा। और

इसके बावजूद
हर सुबह खींच लाती है
मेरी पहुँच में
अनगिन अनछुई पगडंडियाँ
और अनदेखे पहाड़। और
कह देती है
चुपके से। कान में।

कि सब कुछ पलक झपकते ठीक हो सकता है।
इस हालत में भी। अगर
माथे से उठते धुएँ को गुब्बार को
अग्नि-जात मान लिया जाए। यों

जानता मैं भी हूँ
कि बरसात में भीगते खुजैल कुत्ते के लिए
हिरावल दस्ता
युधिष्ठिर का रोल कभी नहीं निभाता।
कभी नहीं!


(रचनाकाल : 30.09.1975)