सम्पादक का आदेश मिला --
ईश्वर से साक्षात्कार करो,
पहले पन्ने पर छपवाओ,
अखबार की सर्कुलेशन बढ़वाओ.
लगा , काम तो बहुत आसान है,
किसी गुरु के यहाँ जाते हैं..
भगवान से मिलते हैं
और इंटरव्यू छाप देते हैं .
गुरु के द्वार पहुँची..
चेलों ने मुलाकात करवाई,
गुरु ने ऊँची-नीची भवें बढ़ाईं,
काफी देर मौन रह वे बोले..
तू पत्रकार है, तेज़ तर्रार है,
लेखनी से मालामाल है,
समझदार है पर बेकार है.
जानती हो क्यों ?
गुरु सेवा के लिए,
तन , मन, धन चाहिए...
दे सकोगी?
अन्धविश्वासी ....
बन सकोगी ?
गुरु की वाणी ही सत्य है...
कह सकोगी ?
गुरु के अन्दर ही ईश्वर है...
मान सकोगी ?
अगर यह कर सकोगी तो...
भगवान से भी मिल सकोगी....
लगा काम आसान नहीं,
गुरु का द्वार छोड़,
मन्दिर का छोर पकड़ा,
जोतें जलाईं,
घंटियाँ बजाईं,
व्रत उपवास रख
वेद पुराण पकड़े..
अन्धविश्वासी ,
रुढ़िवादी बनी,
पर भगवान पकड़ ना पाई.
मन्दिर छोड़,
माँ के घर लौटी....
माँ ने कहा-
बेटी, भगवन तो तेरे अन्दर है,
स्वयं को पहचान, तू इसे पा लेगी.
स्वयं संचेतना में लग गई....
भीतर कहीं रावण की कुटिलता,
दुर्योधन की दुष्टता,
कृष्ण का दर्शन,
राम की मर्यादा पाई...
पुराणों का ज्ञान,
वेदों का सार,
सब ऋचायें कोशिकाओं में पाईं..
कौरवों -पांडवों का युद्ध--
मेरी भावनाएँ हैं....
कृष्ण -अर्जुन संवाद--
मेरे तर्क वितर्क हैं...
भगवन शक्ति है, विश्वास है-
जो मेरे भीतर है.....
आलेख लेकर
सम्पादक के पास गई,
उन्हें बात पसन्द नहीं आई...
नौकरी से हटा,
महीने की पगार पकड़ा- बोले--
कट्टर पंथियों से टक्कर लेना चाहती हो..
ईश्वर से साक्षात्कार के मार्ग
तू बंद कर आई है...
उसने तुझे बनाया,
तूने उसे पाया, यह भ्रम है....
उस तक जाने के रास्ते हैं...
एक रास्ता पकड़ नहीं तो भटक जाएगी...
तेरा कल्याण नहीं होगा....
आज खड़ी हूँ ...
ईश्वर और स्वयं की पहचान की ऊहापोह में....