धन्य हो परमपिता !
सबसे ऊँचा अकेला आसन
ललाट पर विधान का लेखा
ओंठ तिरछे
नेत्र निर्विकार अनासक्त
भृकुटि में शाप और वरदान
रात और दिन कन्धों पर
स्वर्ग इधर नरक उधर
वाणी में छिपा है निर्णय
एक हाथ में न्याय की तुला
दूसरे में संस्कृति की चाबुक
दूर -दूर तक फैली है
प्रकृति
साक्षात पाप की तरह ।