♦ रचनाकार: ईसुरी
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मिलती कभऊं अकेली नइयाँ
बतकाये खाँ गुइयाँ।
मिल जातीं मन की कै लेते
जैसी हती कवइयाँ।
बाहर सें भीतर खाँ कड़ गईं
कुल्ल लुगाइन मइयाँ।
'ईसुर' फिरत तुमाये लानें
ढूंढत कुआं तलइयाँ।
भावार्थ
महाकवि 'ईसुरी' अपनी प्रेयसी 'रजऊ' को उलाहना देते हुए कहते हैं — प्रिये , तुम कभी अकेले में नहीं मिलतीं कि प्रेम की दो बातें कर सकूँ। अगर मिलतीं तो जो कहने लायक होतीं वो बातें कह लेता। तुम औरतों के झुण्ड की ओट लेकर बाहर से भीतर को निकल गईं, जबकि मैं तुम्हारे लिए कुओं, तालाबों पर भटकता फिरता हूँ।