♦ रचनाकार: अज्ञात
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उनकी होय न हमसों यारी
उनसों होय हमारी
मन आनन्द गईं मन्दिर में, शिव की मूरत ढारी
परसत चरन मनक मुन्दरी में, मुख की दिसा निहारी
गिरजापति वरदान दीजिए, जौ मैं मनें बिचारी
ईसुर सोचें श्री कृष्ण खों, श्री बृखमान दुलारी
भावार्थ
वे हमसे प्रेम करें या न करें, हम उनसे प्रेम करते हैं । वे मन्दिर में गईं, शिव जी पर जल चढ़ाया, पर अपनी अंगूठी के
नग में जब मुखदशा निहारी (तो अपने चेहरे की जगह उदास-निराश ईसुरी ही दिखाई दिए) । मन्दिर में एक ब्राह्मण को
जाने से कौन रोक सकता है ? वृषमान नन्दिनी की तरह उसने वरदान मांगा कि हे गिरिजापति मेरी मनोकामना पूरी
करो ।