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उँगली / हरिऔध

काम जैसे पसंद हैं जिस को।
फल मिलेंगे उसे न क्यों वैसे।
हैं अगर काट कूट में रहती।
तो कटेंगी न उँगलियाँ कैसे।

हाथ का तो प्यार सब के साथ है।
काम उस को है सबों से हर घड़ी।
है छोटाई या बड़ाई की न सुधा।
हों भले ही उँगलियाँ छोटी बड़ी।

जी करे तो लाल होने के लिए।
लोभ में पड़ पड़ लहू में वे सनें।
क्यों कहें फलियाँ उन्हें छबि-बेलि की।
उँगलियाँ कलियाँ न चंपे की बनें।

दुख हुआ तो हुआ, यही सुख है।
हाथ से जो विपत्ति के छूटीं।
तब भला टूट में पड़ीं क्या वे।
टूट कर जो न उँगलियाँ टूटीं।

फेर में क्यों लाल रंगों के पड़े।
क्यों अंगूठी पैन्ह ले हीरे जड़ी।
है बड़ाई के लिए यह कम नहीं।
उँगलियों में है बड़ी उँगली बड़ी।

कब न करतूत कर सकी छोटी।
वह दिखाते कला कभी न थकी।
हो बड़ी और क्यों न हो मोटी।
कौन उँगली उठा पहाड़ सकी।

क्यों न हो लाल बारहा उँगली।
लाल होगी कभी नहीं गोंटी।
मिल सके किस तरह बड़ाई तब।
जब छुटाई मिले हुई छोटी।

बन सकी वह नहीं बड़ी उँगली।
भाग कानी कभी नहीं चमका।
मूठियाँ क्यों न बार दें हीरे।
क्यों न देवें अंगूठियाँ दमका।

पैन्ह ले तो पैन्ह ले छिगुनी उन्हें।
क्या करे उँगली बड़ी छल्लै पहन।
तन बड़ाई के लिए छोटे सजें।
है बड़ा होना बड़ों का बड़प्पन।

नाम पाता कौन है बेकाम रह।
क्यों बड़ी उँगली न बिगड़े इस तरह।
पास जब बेनाम वाली के रही।
तब बनेगी नामवाली किस तरह।

क्यों न हो छिगुनी बहुत छोटी मगर।
मान कितने काम कर वह ले सकी।
ऐ बड़ी उँगली बता तू ही हमें।
काम क्या तेरी बड़ाई दे सकी।

जब बने देती रहें सुख और को।
दूसरों के वास्ते दुख भी सहें।
जब कभी छिड़के, न छिड़के गर्म जल।
उँगलियाँ चन्दन छिड़कती ही रहें।

चौंकते मरजाद वाले हैं नहीं।
देख उजबक कंठ में कंठा पड़ा।
क्यों न छल्ले पैन्ह ले कानी कई।
कौन उँगली कान करती है खड़ा।

जो किसी को खली, भली न लगी।
चाहिए चाल वह न जाय चली।
जो गई तो गई किसी मुँह में।
किसलिए आँख में गई उँगली।

सोच उँगली तू ढले तो क्यों ढले।
जो बुरी रुचि में ढला वह जाय ढल।
हैं दमकते तो दमकने दे उन्हें।
मोतियों से दाँत में मिस्सी न मल।

डाल कर सुरमा भलाई की गई।
कब नहीं यह आँख दुखवाली रही।
सोच उँगली तू न कर लाली गँवा।
क्या हुआ कुछ काल जो काली रही।