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उजड़ा सुहाग है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

सूखी नदियाँ
नीर नहीं पाएँगे
नीर न मिला
गाछ कहाँ हों हरे
गाछ न हरे
नीड न बनाएँगे
नीड के बिना
बेचारे प्यारे पाखी
बोलो तो ज़रा
किस देश जाएँगे ।
निर्झर सूखे
कल -कल उदास
पाखी न कोई
आता है अब पास
रोता वसन्त
रो रहे हैं बुराँश
बचा खुचा जो
लील गई आग है
हरीतिमा का
उजड़ा सुहाग है
बहुत हुआ
अब तो जाग जाओ
छाँव तरु की
बूँद -बूँद नीर की
मिलकर बचाओ।
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