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उजला बादल / बुद्धिनाथ मिश्र

सिरफिरी हवाओं के बल
उड़ा करे उजला बादल ।

सूरज से कौन अब डरे
कोहरा इतना हुआ घना
हरसिंगार को है यह गम
नागफनी क्यों न मैं बना !

पतझर के बहकावे में
अँखुओं ने पी लिया गरल ।

तुलसी की पौध रौंदते
शहरों से लौटे जो पाँव
शीशे-सा दरक गया है
लपटों में यह सारा गाँव

सूने आकाश के तले
भिक्षा को फैला आँचल ।

वादों की उड़ी जो पतंग
उलझ गई पाकड़ की डाल
अपने सन्दर्भ से जुड़ी
आँखों को गड़ते रूमाल

सपने बारूद बन गए
आह चिनगियाँ रहीं उगल ।

बिजली का शोर यों बढ़ा
बरगद तक हो गया बधिर
देवों के हाथ से फिसल
किसका-किसका हो मंदिर

पच्छिम का वह जादूगर
आया है पैँतरे बदल ।