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उजाली रातें / नरेन्द्र शर्मा

फिर आ गईं उजाली रातें क्यों मेरा मन हरने?
खिला ब्योम, मुसकाई धरती, मिट्टी लगी निखरने!

दूध-धुला आकाश दीखता, लिपी फेन से धरती,
सुघर चाँदनी लिपे-पुते में पाँव न धरती, डरती;
अचक-पचक यों धर धीरे पग, सुधि भी लगी उतरने!

सब सब के घर सुधा बरसती मौन मुग्ध जग निर्भर,
सुधावृष्टि में खड़े भीजते चुप्पी साधे तरुवर;
झरने लगे झुकी डालों से झीने झीने झरने!

नहीं असुन्दर जग में कोई, देखा कोना-कोना!
मोहित दृग शशि खींच ले गया कैसा जादू-टोना!
पाँखें खोल मुग्ध पलकों की आँखें लगीं विचरने!

चन्द्रमल्लिका के फूलों-से दीखे गोरे बादल,
आँखें उलझ गईं उनही से, अलि ज्यों देख कमलदल;
नीलम की नभ-सरसी में रे लहरें लगीं लहरने!

यह रसभरी शर्वरी, देखो इसकी भरी जवानी!
कहती मुझसे—क्यों न बन सके स्वस्थचित्त सब प्राणी?
पौष-शेष, निशि खिली पुष्प-सी माघ मास को वरने!

यदि न बन सकी सब दुनिया ऐसी—सब दिन को सुन्दर,
मरते जी न उठे, तो निष्फल झरे सुधा के निर्झर!
आई वृथा चाँदनी फिर मेरे मन में घर करने!