मुख़ालिफ़ हवाओं के बीच
आसान नहीं होता,
अँधेरे की महफ़िल में
रौशनी लिखना!
मगर वो नन्हा-सा दिया
रातभर लिखता रहा
पुरहौस...
रोशनी की इबारत
अँधेरे की छाती पर।
हवाएँ,
झपटती रहीं
उजास-उगलती लेखनी पर।
लेखनी डगमगायी,
फिर सँभली...
और जगमगायी!
दिये का संघर्ष देखते-देखते
मैं नींद के आगोश में
खो गया,
और चादर तानकर
सो गया।
सुबह,
जब आँख खुली
तो दिये की रोशन ‘पाण्डुलिपि’
सूरज के रूप में
प्रकाशित मिली!
उसका संदेश
कितना प्रखर था,
मौन होकर भी
मुखर था
कि-
अँधेरे के ख़िलाफ़ संघर्ष में
हमें हिम्मत नहीं खोनी है
क्योंकि-
जीत तो आख़िर
उजाले की ही होनी है!!