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उजालों नें डसा / राजीव रंजन प्रसाद

हर किरन चाहती है
कि हाथ थाम ले मेरा
और मैं अपने ही गिर्द
अपने ही बुने जालों में छटपटाता
चीखता/निढाल होता
और होता पुनः यत्नशील
अपनी ही कैद से बाहर आना चाहता हूं
काश! अँधेरे ओढे न होते
तुम्हारी तरह मज़ाक समझा होता
अपना साथ, प्यार, भावना
संबंधों की तरलता
लोहित सा उद्वेग
तमाम चक्रवात, तूफान, ज्वार और भाटे

काश! मेरा नज़रिया मिट्टी का खिलौना होता
किसी मासूम की बाहों या कलेजे से लगा नहीं
किसी खूबसूरत से मेजपोश पर
आत्मलिप्त..खामोश
जिसकी उपस्थिति का आभास भी हो
जिसकी खूबसूरती का भान भी हो
जिसके टूट जाने का गम भी न हो
जो ज़िन्दगी में हो भी
और नहीं भी..

काश! मेरा मन इतना गहरा न होता
काश! होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश! मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
आज भान हुआ
कितनी उथली थी तुम्हारी आँखें
कि मेरा चेहरा तो दीखता था
लेकिन मेरा मन और मेरी आत्मा आत्मसात न हो सकी तुममें

काश! तुम्हे भूल पाने का संबल
दे जाती तुम ही
काश! मेरे कलेजे को एक पत्थर आखिरी निशानी देती
चाक- चाक कलेजे का सारा दर्द सह लेता
आसमां सिर पे ढह लेता तो ढह लेता..
गाज सीने पे गिरी
आँधियां तक थम गयी
खामोशियों की सैंकडों परतें जमीं मुझ पर तभी
आखों में एक स्याही फैली..फैली
और फैली
समा गया सम्पूर्ण शून्य मेरे भीतर
और "मैं" हो गया
मुझे पल पल याद है
अपने खंडहर हो जाने का

काश! हवायें बहना छोड दें
सूरज ढलना छोड दे
चाँद निकलना छोड दे
नदियाँ इठला कर न बहें
तितलियाँ अठखेलियाँ न करें
चिडिया गीत न गाये
बादल छायें ही नहीं आसमान पर
काश! मौसम गुपचुप सा गुज़र जाये
काश! फूल अपनी मीठी मुस्कान न बिखेरें
काश्!...
काश कि ऐसा कुछ न हो कि तुम्हारी याद
मेरे कलेज़े का नासूर हो जाये
कि अब सहन नहीं होती
अपना ही दर्द आप सहने की मज़बूरी....

और वो तमाम जाले
जो मैंने ही बुने हैं
तुम्हारे साथ गुज़ारे एक एक पल की यादें
तुम्हारी हँसी
तुम्हारी आँखें
तुम तुम सिर्फ तुम
और तुम
और तुम
रग- रग में तुम
पोर -पोर में तुम
टीस- टीस में तुम

धडकनें चीखती रही तुम्हारा नाम ले ले कर
और अपने कानों पर हथेलियाँ रख कर भी
तुम होती रही प्रतिध्वनित भीतर
तुमनें मुर्दों को भी जीनें न दिया
अंधेरे ओढ लिये मैनें
सचमुच उजालों से डर लगता है मुझे
जबसे उजालों नें डसा है
कि तुमनें न जीनें दिया न मारा ही

१६.०४.१९९५