उजास की भिक्षुक स्वयं, दीपज्योति सी दमक उठी
मैं प्रकाश की याचिका, अग्नि पुंज सी धधक उठी
गतिमान की गति को कहो, भला रोकेगा कौन
मुक्त वाक्य में यति यहाँ, भला लगायेगा कौन
पोखर से निकल अब नदी सी मचल लचक उठी
कभी बादल की बूंद सी, कभी खिली धूप सी
बनी हूँ कभी देवी तो , कभी मात्र रूपसी
छोड़ कर विशेषणों को संज्ञा बन चमक उठी
पैरों में पायल थी या समाज की बेड़ियाँ
खत्म हुए संवाद सभी, खत्म हुई अठखेलियाँ
बिन पायल बिन घुँघरू के ताल ताल थिरक उठी
कोई पल गिर गया कहाँ, मुझे कुछ पता नहीं
जीवन हाथ से निकल, हो गया लापता कहीं
बिखरी खुशबुओं को समेट मैं फिर महक उठी
विलयशील पदार्थ सी हर परिस्थिति में घुल गई
सीवन सी उधड़ कर, फिर रफू सी मैं सिल गई
पहचान अपनी चमक अब नूर सी दमक उठी
न पीड़ा की स्मृतियों पर, न भरे हुए घाव पर
फर्क नहीं पड़ता मुझे , उम्र के इस पड़ाव पर
क्या ये कम है कि बुझने से पहले भभक उठी
उजास की भिक्षुक स्वयं, दीपज्योति सी दमक उठी
मैं प्रकाश की याचिका, अग्नि पुंज सी धधक उठी