मैं उठाता हूँ शब्द 'हाथ'
और सिर्फ़ उसके हाथ याद आते हैं,
अन्तरिक्ष को लोकते हुए-
मैं उठाता हूँ शब्द 'नेत्र'
और सिर्फ़ उसके नेत्र याद आते हैं
उदगम पर झरने को निहारते हुए-
मैं उठाता हूँ शब्द 'नाभि'
और सिर्फ़ उसकी नाभि याद आती है
सुख की एक अधीर गाँठ की तरह संपुंजित-
शब्द अपने सारे दूसरे अर्थ, प्रसंग
स्थगित करते हैं
क्योंकि मैं शब्द उठाता हूँ
उसके प्रेम में।