Last modified on 10 नवम्बर 2020, at 23:45

उड़ा-उड़ा मन / रामगोपाल 'रुद्र'

उड़ा-उड़ा मन उड़ने से लाचार है!
पाँखों का होना भी लगता भार है!

तट पर हूँ, धारा में मेरी नाव है;
चाहूँ तो उड़ जाऊँ, यह भी भाव है,
पर, मेरे पाँखों को यह क्या हो गया?
इनमें कम्पन का भी आज अभाव है!
राह सुगम होकर भी आज पहाड़ है!
आज किनारा ही मुझको मँझधार है!