उड़ी
आई,
प्यार का अवलम्ब देकर-
चहचहाई।
गई,
ऊपर
मुझे तजकर;
हुई ओझल,
पुनः वापस नहीं आई-
प्यार का अवलम्ब लेकर।
मैं,
बिना उसके
उसे अब भी जिलाए,
प्यार का अवलम्ब पाए,
जी रहा हूँ
जिंदगी को
जगमगाए।
रचनाकाल: ०४-०३-१९९०
उड़ी
आई,
प्यार का अवलम्ब देकर-
चहचहाई।
गई,
ऊपर
मुझे तजकर;
हुई ओझल,
पुनः वापस नहीं आई-
प्यार का अवलम्ब लेकर।
मैं,
बिना उसके
उसे अब भी जिलाए,
प्यार का अवलम्ब पाए,
जी रहा हूँ
जिंदगी को
जगमगाए।
रचनाकाल: ०४-०३-१९९०