निर्द्वन्द्व मन
शान्त नील गगन
प्रेमघन-से
प्रिय छाए-घुमड़े
आँधी जग की
तेज चलती रही
मैं भी अडिग
तुम भी थे हठीले
हुए घनेरे
निशि-साँझ-सवेरे
तन यों मेरे
झरी प्रेम फुहारें
तपती धरा
अभिसिंचित हुई
उड़ी सुगंध
कुछ सोंधी-सोंधी-सी,
उन बूँदों से
है अतृप्त जीवन
अस्तु शेष हैं
पुनः-पुनः अब भी
प्रेमघन को
मन के आमंत्रण
और आशा भी-
बरसेगा अमृत
सुगन्धित हो
होगा तृप्त जीवन
तन -मन चन्दन
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