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उतरी जो चाह अभी / हरीश भादानी

उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    सोने के पाँव रखे
    चौक-छत-मुंडेरों पर
    पोरों से दस्तक दी
    बंद पड़ी ड्योढ़ी पर
    निंदियायी पलकों पर
    कुनमुनती गलियों
    सड़कों-फुटपाथों पर
उठ बैठे जितने सवाल
    सब बटोर ले गई मुहल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    धरती पर आ उतरे
    टीन के आकाश नीचे,
    साँस-साँस पिघलाई
    आग की कढ़ाही में
    लोहे के साँचों पर
    आँख टिका, आँख झपक
    हिल-हिलते हाथों से
    पानी में ठार-ठार
    संकेतों-संकेतों-
आखर ही आखर
    ढल रहे धड़ल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    हीरों से हरियाये खेतों में
    हुम-हुम कर हिलके हैं
    हाथ-हाथ हाँसिये
    हो-हो की आवाजें
    टिच-टिचती टिचकोरी
    हेर रही बैलों को
    ऐसा यह दूर दरसन
    देख-देख, रीझ-रीझ
    ठहरी है दोपहरी मेड़ों पर
    वे भी तो थम-थमते
    धूप से धो हाथ-मुँह
    एक पंगत हो जुड़े हैं
घर से ढाणी
    घर-ढाणी के थल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से.....


    खाली हुई पेट की
    कुई के आगे आ गया है
    प्याज-छाछ-सोगरा
    मुट्ठी में मसोस कर
    मसक लिया है थाली में,
    एक बखत पांण दे
    उठ लिए हैं कमधजी
    बे उधर कि ये इधर
घास-घास, फूस-फूस
    फटक हैं पल्ले से
उतरी जो चाह अभी
    पूरबी दुमहले से!