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उत्तर यात्रा / अम्बिका दत्त


आप हमेशा इस बात के लिए कहते है
मुझे जलील करते है
कि मेरे चेहरे पर, एक और चेहरा चढ़ा हुआ है
बेशक ! मेरे असली चेहरे पर
एक और चेहरा चढा हुआ है
मगर ये मेरी आदत नही - मजबूरी है
कैसे कायम रह सकती है
किसी भी आदमी के चेहरे की शक्ल
असली वैसी की वैसी - सुरक्षित
जब उसका पेट खा जाता हो - उसका चेहरा
फिर यंहा तो चेहरे से
सिर्फ पेट की ही नहीं
कई अंगो की लड़ाई है
कोई आदमी
कभी भी नोचे हुए या फटे हुए
चेहरे में रहने की मजबूरी
सिर्फ भुगतान है - पसन्द नही करता
इसके लिए जरूरी है
या तो वह अपना चेहरा ढके
आसपास से गुजरती भीड़ में से
कोई चेहरा चुनकर उससे
या फिर दूर जंगल में से
बहती नही में डूब जाएगा।

वो लोग जो हमेशा कहते है
दुःख जाहिर करते है
इस बात के लिए - हल्ला भी करते है
कि आदमी के पास, दो चेहरे है
वे हमेशा सूचना देते है
कि आदमी के पास दो चेहरे है
न जाने क्यों
वे यह क्यों नही कहते
कि आदमी के पास दो चेहरे क्यों है ?

वे जो असंतुलित करते है
मौसम का माहौल
शनैः बहती-बहती-हवा में से कोई रंग तोड़कर
अंगुली पर रेशम लपेट कर-कोई कविता बुनते है
वे अपनी सुविधा के लिए
शब्दकोश में से कुछ शब्द चुनते है
बिल्कुल ऐसा ही करते है बच्चे
जब अपने पांव पर थपेड़ते है - कच्ची गीली मिट्टी
वो लोग कविता में
चेहरों की जगह
शब्द प्रयोग करते है
और शब्दों के अर्थ उगाते नही तलाशते है
ये उनकी अपनी मर्जी है
इसमें बहुत सारे रास्ते हैं
मैं आजकल कविता में
शब्दों की जगह
चेहरों का इस्तेमाल करता हूं
मेरी सबसे बड़ी हिम्मत है
मेरी सचाई कहने की आदत
और सच यह है कि-
मैं अपने खुद के चेहरे से बहुत डरता हूं

जैसे कि यह कविता
सिर्फ/आदमी के दो चेहरे होते है
से लेकर/दो चेहरे क्यों होते है तक
ईमानदार तो होती है
लेकिन किसी भी जिम्मेदारी की जहमत नही उठाती
सिर्फ सवाल हो ढोती है
इसके बावजूद
मैं निराश नही हूं/सोचता हूं
उत्तर यात्रा यही से शुरू होती है
क्योंकि कविता जितना तोड़ती है
उससे जितना तोड़ती है
उससे ज्यादा भरती है।
कविता, किसी भी भाषा का चेहरा बनने से पहले
शब्दों में मरती है।