उत्तर यात्रा / मनोज कुमार झा

बहुत दूर से आ रहा हूँ
       चिड़इ की तरह नहीं
चिड़इ तो माँ भी न हुई जो वह चाहती थी
       कथरी पर सुग्गा काढ़ते, भरथरी गाते।
जुते हुए बैल की तरह आया हूँ
       बंधनों से साँस रगड़ता और धरती से देह
               हरियाली को अफसोस में बदल जाने की पीर तले।

मेरी देह और मेरी दुनिया के बीच की धरती फट गई है
       कि कहीं से चलूँ रास्ते में आ जाता कोई समंदर

किसके इशारे पर हवा
कि आँखों में गड़ रही पृथ्वी के नाचने की धूल

इतनी धूल इतना शोर इतनी चमक इतना धुआँ इतनी रगड़
हो तो एक फाँक खीरा और चुटकी भर नमक
कि धो लूँ थकान का मुँह।

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