रिबोक जूते की दुकान में आईने में
अपनी शक्ल देख अपनी औकात मापता हुआ
आज मैं दूसरी बार उदास हो गया
तब मैथिली कवि महाप्रकाश की पंक्तियों ने
ढाढस बंधाया - जूता हम्मर माथ पर सवाल अछि ...
और याद आईं रिबोक टंकित टोपियां
जो परचम बनी लहराती रहती हैं
तलाशा हालांकि उदासी का
कोई मुकम्मल कारण नहीं मिला
आईने में मेरी सफेद पडती दाढी थी
क्या वही थी उदासी का सबब
कानपुर में वीरेन दा ने यूं ही तो नहीं टोका था
मेरी बढ आयी दाढी पर
लौटते रेल में पति के साथ बैठी नवब्याहता भी
घुल मिल गयी थी
तो ... हजामत करूं नियमित
पर ऐसे क्या ...
उदासी आंखों में पैठ गयी तो
सोचता हूं दौडूं और उदासी को
पीछे छोड दूं।
1998