आज कितना उदास दिन गया।
चाव ही जीने का छिन गया।
धूलि अंबर पर छाई रही,
ज्योति रवि की धरती ने गही,
दिखा ज्यों अनशन-पाटी लिए,
रूठ कर पौढ़ी रही मही,
मना पाया न धरा को सूर्य,
प्रिया से सुख पाए बिन गया।
आज के दिन की क्षण संतान
विलय विक्षोभ विरस की प्रजा।
हुआ जब चिन्मय-मृण्मय-योग,
देह-देही ने भेद न तजा।
असूया ओढ़े दिशा रही,
काल मन में लेकर घिन गया।
मलिन थी सूरज की मुख-कांति
भोर की बेला में भी आज।
रहा हँसता फीकी सी हँसी
आज का सूरजमुखी समाज।
आज दिन चढ़े हुआ यह भान,
साँस कोई दिन की गिन गया।
आज का कैसा विकृत दिनांत,
आज का दिवस न कृतसंकल्प।
विकल्पों के पथराए पाँव,
आज पल ने न सँजोया कल्प।
जलाभासों के दलदल बीच
व्यर्थ मारा जीवाजिन गया।
रह गई भूखी-प्यासी आज
ज्योति-विद्या देहांतर-सृष्टि,
गर्भ-धारण से डरती सिद्धि,
सिद्ध करता न बीज की वृष्टि,
व्यष्टि-तृण जल-ज्वाला को दिया,
न पर छाती पर से ऋण गया।
गिरा पश्चिम में घायल सूर्य,
उगा पूरब में निष्प्रभ चाँद।
भागता चोर-जार-सा प्राण
चला, दीवार पिंड की फाँद।
गई उत्तर में श्वास-सुवास,
फूल बासी धुर दक्खिन गया।