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उद्धव-गोपी संवाद भाग २ / सूरदास


जानि करि बावरी जनि होहु ।
तत्व भजै वैसी ह्वै जैहौ, पारस परसैं लोहु ॥
मेरौ बचन सत्य करि मानौ, छाँड़ौ सबकौ मोहु ।
तौ लगि सब पानी की चुपरी, जौ लगि अस्थित दोहु ॥
अरे मधुप ! बातैं ये ऐसी, क्यौं कहि आवतिं तोह ।
सूर सुबस्ती छाड़ि परम सुख, हमैं बतावत खौह ॥1॥


ऊधौ हरि गुन हम चकडोर ।
गुन सौं ज्यौं भावै त्यौं फेरौ, यहे बात कौ ओर ॥
पैड़ पैंड़ चलियै तो चलियै, ऊबट रपटै पाइँ ।
चकडोरी की रीति यहै फिरि, गुन हीं सौं लपटाइ ॥
सूर सहज गुन ग्रंथि हमारैं, दई स्याम उर माहीं ।
हरि के हाथ परै तौ छूटै, और जतन कछु नाहिं ॥2॥

उलटी रीति तिहारी ऊधौ, सुनै सो ऐसी को है ।
अलप बयस अबला अहीरि सठ, तिनहीं जोग कत सोहे ॥
बूचि खुभी, आँधरी काजर, नकटी पहिरै बेसरि ।
मुड़ली पटिया पारौ चाहै, कोढ़ी लावै केसरि ॥
बहिरी पति सौ मतौ करै तौ, तैसोइ उत्तर पावै ।
सो गति होइ सबै ताकी जो ,ग्वारिनि जोग सिखावै ॥
सिखई कहत स्याम की बतियाँ, तुमकौं नाहीं दोष ।
राज काज तुम तैं न सरैगो, काया अपनी पोष ॥
जाते भूलि सबै मारग मैं, इहाँ आनि का कहते ।
भली भई सुधि रही सूर, नतु मोह धार मैं बहते ॥3॥

अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी ।
देख्यौ चाहतिं कमलनैन कौं, निसि-दिन रहतिं उदासी ॥
आए ऊधौ फिरि गए आँगन, डारि गए गर फाँसी ।
केसरि तिलक मोतिनि की माला, बृंदावन के बासी ॥
काहु के मन की कोउ जानत, लोगनि के मन हाँसी ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, करवट लेहौं कासी ॥4॥

जब तैं सुंदर बदन निहार्‌यौ ।
ता दिनतैं मधुकर मन अटक्यौ, बहुत करी निकरै न निकार्‌यौ ॥
मातु, पिता, पति, बंधु, सुजन नहिं, तिनहूँ कौ कहिबौ सिर धार्‌यो ।
रही न लोक लाज निरखत, दुसह क्रोध फीकौ करि डार्‌यौ ॥
ह्वैबौ होइ सु होइ सु होइ कर्मबस, अब जी कौ सब सोच निवार्‌यौ ।
दासी भई जु सूरदास प्रभु, भलौ पोच अपनौ न विचार्‌यौ ॥5॥

और सकल अँगनि तैं ऊधौ, अँखियाँ अधिक दुखारी ।
अतिहिं पिरातिं सिरातिं, न कबहूँ, बहुत जतन करि हारी ॥
मग जोवत पलकी नहिं लावतिं, बिरह बिकल भइँ भारी ।
भरि गइ बिरह बयारि दरस बिनु, निसि दिन रहतिं उघारी ॥
ते अलि अब ये ज्ञान सलाकैं, क्यौं सहि सकतिं तिहारी ।
सूर सु अंजन आँजि रूप रस, आरति हरहु हमारी ॥6॥

उपमा नैन न एक रही ।
कवि जन कहत कहत सब आए, सुधि कर नाहिं कही ॥
कहि चकोर बिधु मुख बिनु जीवत , भ्रमर नहीं उड़ि जात ।
हरि-मुख कमल कोष बिछुरे तैं, ठाले कत ठहरात ॥
ऊधौ बधिक ब्याध ह्वै आए, मृग सम क्यौं न पलात ।
भागि जाहिं बन सघन स्याम मैं , जहाँ न कोऊ घात ॥
खंजन मन-रंजन न होहिं ये, कबहुँ नहीं अकुलात ।
पंख पसारि न होत चपल गति, हरि समीप मुकुलात ॥
प्रेम न होइ कौन बिधि कहियै, झूठैं हीं तन आड़त ।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि कबहुँ न छाँड़त ॥7॥

ऊधौ अँखियाँ अति अनुरागी ।
इकटक मग जोवतिं अरु रोवतिं, भूलेहुँ पलक न लागी ॥
बिनु पावस पावस करि राखी, देखत हौ बिदमान ।
अब धौं कहा कियौ चाहत हौ, छाँड़ौ निरगुगन ज्ञान ॥
तुम हौ सखा स्याम सुंदर के, जानत सकल सुभाइ ।
जैसैं मिलै सूर के स्वामी, सोई करहु उपाइ ॥8॥

सब खौटे मधुबन के लोग ।
जिनके संग स्याम सुंदर सखि, सीखे हैं अपजोग ॥
आए हैं ब्रज के हित ऊधौ, जुवतिनि कौ लै जोग ।
आसन, ध्यान नैन मूँदे सखि, कैसैं कढ़ै वियोग ॥
हम अहीरि इतनी का जानैं, कुबिजा सौं संजोग ।
सूर सुवैद कहा लै कीजै, कहैं न जानै रोग ॥9॥

मधुबन लोगनि को पतियाइ ।
मुख औरे अंतरगत औरे, पतियाँ लिखि पठवत जु बनाइ ॥
ज्यौं कोइल सुत-काग जिवावै, भाव भगति जु खवाइ ।
कुहुकि कुहुकि आऐं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाइ ॥
ज्यौं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातैं आइ ।
सूर जहाँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाइ ॥10॥

आए जोग सिखावन पाँड़े ।
परमारथी पुराननि लादे, ज्यौं बनजारे टाँड़े ॥
हमरे गति-पति कमल-नयन की, जोग सिखें ते राँड़े ।
कहौ मधुप कैसे समाहिंगे, एक म्यान दो खाँडे ॥
कहु षट्पद कैसें खैयतु है, हाथिनि कैं सँग गाँड़े ॥
काकी भूख गई बयारि भषि, बिना दूध घृत माँड़े ।
काहे कौं झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डाँड़े ॥
सूरदास तीनौ तहिं उपजत, धनिया, धान कुम्हाड़े ॥11॥