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उधार की ज़िंदगी / शांति यादव

औरत एक उधार की
ज़िंदगी जीती है,
एक किराए का
जिस्म रखती है।
अपने तरीक़े से
जीने का उसे
कोई अधिकार नहीं।
रात-दिन खपती है,
कोई आराम नहीं।
जब तक जीती है
तीन मालिक,
बदल जाते हैं।
यही सहते-सहते
हमारे दिल
दहल जाते हैं।
जन्म से लेकर
कौमार्य तक
पिता की जागीर
होती है,
दूसरा मालिक उसे
मिलता है
पति देवता के रूप में
सारी जवानी उसकी
क्रीतदासी रहती है।
तीसरा मालिक
बनाती है,
अपने जिस्म से
अपने रक्त से,
पालती है गर्व से,
बड़े यत्न से,
जवान हुआ
बेटा मालिक
बन जाता है,
उसकी मर्ज़ी पर
माँ का जीवन
निर्भर हो जाता है।
इस तरह, उसकी
ग़ुलामी का सिलसिला
जारी रहता है।
वह अपने लिए नहीं
औरों के लिए जीती है।
इसीलिए औरत
एक उधार की
ज़िंदगी जीती है।