दूसरों की रोशनी में
चलते-चलते अपनी रोशनी तक
पहुँचने की बात तो
तुम भी जानते हो दोस्त !
लेकिन तलाश तुम्हें
रोशनी की नहीं
रास्ते की थी
जिसे तुम जब चाहो
पुल की तरह इस्तेमाल कर सको
या सीढ़ी की तरह
कभी-कभी
ऐसा क्यों होता है दोस्त!
कि आदमी
अपने ही अजायबघर की चीज़ों को
देखने लगता है
दूसरों की नज़रों से
ऐसी नजरें
जिनमें चीज़ों के अदभुत होने का
आश्चर्य नहीं
आह्लाद भी नहीं
छलकता है
देह का सूर्योदय।