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उन्माद / महावीर झा 'वीर'

शिशुताक अन्त रजनीमे
उन्माद उठल किछु मनमे।
किछु मधुर-मधुर सन ज्वाला
अनुभूति भेल हृत्तलमे।

उर उमड़ि उठल आनन्दक
अति तरंग तरंगित शरणी।
तहँ थिरकि रहल छल अनुखन
मानस स्वतन्त्र तर तरणी।

कत कामनाक कलिका लय
रचि रंग-विरंगक माला।
कय कलित हृदय हम पौलहुँ
आशाक मधुर मधु प्याला।

कन्दर्प-दर्प-जित सुखमा,
पवनहुसँ सबल कलेवर।
बनि गेल ससीम असीमो
प्रज्ञा मानस अभ्यन्तर।

अति-उच्च अगम गिरिमाला,
मरु-महिक तीव्रतर ज्वाला।
दुस्तर पथ पारावारक
दव-दबित विपिन भयकारक।
क्रोधान्ध पन्नगक फणसँ
मद-मत्त महागज गणसँ-
हरि हृद्य करब मणिमाला
छल सहज मानसक ज्वाला।

ऋतुपति केर रुचिर प्रभाती
आ ग्रीष्मक सायं-सुखमा।
घन-घोर घोष मारुत युत
वर्षाक निशीथ निरुपमा।

उन्मुक्त चन्द्रिका चर्चित
शर्वरी श्वेत शुभ वासा।
ओ हास्यमयी हेमन्ती
सन्ध्या हिम बिन्दु विलासा।

हम चलब ऐँठि जग-मगमे श्री शारदाक प्रिय सुत भय।
अवलोकि अलौकिक वैभव रहि जायत विश्व चकित भय।
ई रहल कखन कहिया तक उन्माद जड़ित जग जीवन।
बीतल बस स्वप्न सदृश सब, बनि गेल शान्त सन्ध्या सन।
टुटि गेलजखन ओ मस्ती, नहि ऊठि सकैं छल एँड़ी।
देखल यदि पलक उठा कै, छल पड़ल पैरमे बेड़ी॥