एक तो अपना यह रथ ही बहुत भारी है
और फिर दलदल में धंसा हुआ पहिया!
अपने हिस्से की जमीन है ऊबड़-खाबड़,
सुविधाओं की सड़क यहां कहां, भइया!
छूटते जाते हैं दिन, मास और वर्ष
सफल होने की यहां किसे फुरसत,
तो भी हमने बहुत पाया है यहां, खोकर,
चंद तीरों का जहर, चंद फूलों की महक!
प्लास्टिक का रथ उडाये जा रही कायर
सफलता, सारथि की आड़ में छिपती-छिपाती,
बांस की इक पीपणी मुंह में लगाये
झुनझुना इक हाथ में लेकर बजाती।
और दामन में बंधे कुछ सूरमा बड़े-बड़े
चिंतक-विचारक, कवि-कथाकार, चित्रकार
गुच्छे में लटकी चाबियों से खनकते
याचक, गायक, नर्तक और पत्रकार!
अपनी उपलब्धि भी कम नहीं, दोस्तो!
बूढ़े एक बरगद की शीतल बड़ी छांव है
सोटा है, सोटी, डोरा-लोटा, लंगोटी है,
हमको तो प्यारा यही सादतपुर गांव है।
कुछ अधखिली कलियां, फूल कुछ खिले हुए
भिन्न रूप, भिन्न रंग, अलग-अलग गंध है।
प्रतिभा है, ऊर्जा है, मेहनत और कोशिश है-
सब कुछ है, जो कुछ है सबके साथ-संग है।