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उपहार / सुरेन्द्र स्निग्ध

मैं हूँ तुम्हारी बाँह
इसमें समेटूँगा
समूचा विश्व ।

मैं हूँ तुम्हारे पैर
नाप लूँगा
पृथ्वी का विस्तार
नाप आऊँगा
क्षितिज के कोर ।

मैं हूँ तुम्हारे पँख
सपनों की
थाह लूँगा
गगन का विस्तार
भेद लूँगा
सृष्टि के सारे रहस्यों को
चाँद तारों को
गगन से छिनकर
छोटी हथेली में
जतन से सौंप दूँगा ।

मत दुखी होना
ओ मेरी प्रियतमे,
सृष्टि का नव रूप
तुम में देखता हूँ
सृष्टि का अनमोल
एक उपहार
तुम्हारे प्यार में मैं ढूँढ़ता हूँ ।