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उपालंभ / वसुधा कनुप्रिया

सुनो,
सखी कहती है
अभिमानी मुझे,
कि जाते समय
रोका नहीं तुम्हें

नहीं चाहती थी
कि टोक कर
डाल दूँ संशय में
या बोझिल कर दूँ
अंतस तुम्हारा
अपने उपालंभ से
इसलिए, केवल इसलिए
विरह पीड़ा सहती
खड़ी रही चुपचाप
अंतर्द्वंद्व से जूझती
कि पुकारूँ या नहीं

धीरे-धीरे, होते गये दूर...
तुम भी तो... ठहरे कहाँ
प्रेम बंधन नहीं, प्रतिज्ञा नहीं
प्रेम उपालंभों की
परिधि में क़ैद
विवशता भी नहीं,

यह प्रेमानुराग
जकड़े रहेगा मुझे...
हाँ, तुम स्वतंत्र हो
जाने के लिये, या फिर
लौट आने के लिये...