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उभयचर-12 / गीत चतुर्वेदी

उसको इस तरह देखना कि फिर वह मुझे ही देखती रहे बार-बार
इस तरह पलटना हज़ार सफ़ों की किताब जैसे हज़ार परों वाला परिंदा उडऩे को टालता
बड़ी सावधानी से सीढिय़ां चढऩा उसे तरक़्क़ी मानना
पानी कहते ही ठंडक का आभास होना न ही अपनी-पराई प्यास का
ख़ुद को सीमित रखना एक ही ईश्वर एक ही साथी एक ही विश्वास एक ही विचार एक ही अवस्था तक
निष्ठा की एकरसता में बहुलता की ध्वनि नहीं होती
अभय-अरण्य में भय का अभिशाप
मुझमें अर्थ मत खोजना मैं किसी प्रतीक में प्रविष्ट हो नष्ट नहीं होना चाहता
यह भी एक ग़लती ही ऐसी कोई ग़लती बची नहीं जो मैंने न की हो
जीवन को फिर से जीने की शर्त बदी तो विशाल शुद्धिपत्रों को बांचते बर्बाद हो जाएंगे स्वर्ग के मुंशी
ऐसी दुनिया हो कम से कम वह जहां ज़रूरी हो किताबों को ख़र्रों को गट्ठरों को पुलिंदों को ईंटों की तरह एक-दूसरे पर लदे इंसानों को पूरा पूरा पढऩा
अंतरिक्ष के जिस हिस्से में रहता आया मैं वहां किताबों का और बाक़ी सब ही कु़छ का अधूरा होना उनके गौरव की महती शहतीर-सा रहा
पूरा होने का स्वप्न जो मिला मुझको उसे पूरा का पूरा स्थानांतरित कर दिया तुम सबमें
यह भी बस एक रिवायत के तहत
समस्त द्वीपों पर मैं ही रहता आया इस तरह अकेलापन ख़त्म हुआ द्वीपों का मेरा भी
मेरा नाम इतिहास है और इसी तरह लिखूंगा मैं आत्मकथा