जीवन के तीस बरस बीत गये
अपने से जूझते
खुद को धिक्कारते
खुद को ही पूजते।
कभी कभी अनजाने लोग भी
नमस्कार करते हैं
थोड़ा यश पाया है
पर यह भी पाने को क्या नहीं गंवाया है
नींद भरी रातों में जागा हूँ
अपनी ही खोज में अपने से भागा हूँ
कभी कभी दर्पण को प्यार से निहारा है
और कभी पत्थर दे मारा है।
भीतर भी बाहर भी दर्पण ही दर्पण हैं
भागकर कहां जाऊं
भीतर के सन्नाटे बाहर के शोर से
घिरा हुआ चारों ही ओर से
तड़प तड़प जाता हूँ
मुक्ति के उपाय नहीं सूझते।
जब तक भी है कर्तव्य
जब तक इतिहास है
सभी जगह सपने हैं, सभी जगह त्रास है।
बस यों ही
बस यों ही सब दिन ढल जाएंगे
उभरेंगे पछतावे नये नये
बांसों की आग में जुगनू जल जाएंगे।
जीवन का क्रासवर्ड सही न भर पाया मैं
इतने दिन बीत गये बूझते
अपने से जूझते।