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उम्मीदों का नया आकाश / शिव कुशवाहा

किसी शहर की सड़क की
परित्यक्त पुलिया के किनारे
ठहरकर देखना कभी
कि वहाँ दिखेंगे तुम्हें
धंसते हुए से धरातल
मटमैले से भावों को समेटे
स्याह बादलों में
गुम होता हुआ जीवन

जीवन, हाँ वह जीवन
जो संघर्ष करता है
अधियारे भोर से लेकर मटमैली शाम तक
जिजीविषा से जूझते हुए
बाज़ार के किनारे पर
लगा लेते हैं अपनी उम्मीदों का संसार
जैसे जैसे ढलती है साँझ
उनकी उम्मीदें का आकाश धुंआ होता जाता है
बाज़ार में सन्नाटे के साथ
सिमट जाती हैं
उनके जीवन की रंगीनियाँ

शहरी बस्तियों से दूर
टिमटिमाता है
अधजला सा दीपक
जो बुझती हुई ज़िन्दगी का सम्बल बनकर
बार बार उम्मीदों को रखता है जिंदा
अलसुबह फिर से सड़क के किनारे
गुलजार होती है उनकी दुनियाँ
और वे फिर नए सिरे से
उठा लेते हैं अपने सिर
उम्मीदों का एक नया आकाश...