इक उम्र
वो भी आएगी, जब
चढ़ी धूप
मुंडेरे से उतर
आँगन के किसी कोने में
सिमटती/खिसकती चली जाएगी!
बदलने लगेंगे शब्दों के/चीजों के अर्थ
बदलती जाएगी हर परिभाषा
और होने लगेगा यकीं, कि
आसमाँ छू लेना
सचमुच असंभव है...!
इक उम्र
वो भी आएगी, जब
चढ़ी धूप
मुंडेरे से उतर
आँगन के किसी कोने में
सिमटती/खिसकती चली जाएगी!
बदलने लगेंगे शब्दों के/चीजों के अर्थ
बदलती जाएगी हर परिभाषा
और होने लगेगा यकीं, कि
आसमाँ छू लेना
सचमुच असंभव है...!