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उम्र की गणित / हरेराम बाजपेयी 'आश'

हमारे पा है ही काया, तुम कमी की बात करते हो,
दो गज़ ज़मीन भी नहीं अपनी, तुम आसमां की बात करते हो।

घिरा हूँ भीड़ से फिर भी अकेला लग रहा हूँ,
दोस्त मुंह फेरे खड़े हैं, तुम दुश्मनों की बात करते हो।

जिन्हें अपना समझता हूँ, पराये उनसे बेहतर हैं,
भरोसा उठ गया खुद से, तुम जहाँ की बात करते हो।

वफा के नाम पर खुद को मिटा डाला "आश" ,
अंधेरा दिन में लगता है, जात की तुम बात करते हो।

लहू का घूंट यह जीवन अब जिया जाता नहीं,
हलक में कैद साँसे हैं तुम ज़िन्दगी की बात करते हो।

उम्र की कैसी गणित थे, ज्यों-ज्यों जुड़े त्यों-त्यों घाटे,
भाग टुकड़ों में बटा है, तुम गुणा की बात करते हो॥