उम्र की रोशनी / मनीष मूंदड़ा

देखो उम्र किस क़दर तुम पर फबती हैं
वो सारी शिकायतें अब बेमानी लगती हैं
शक्ल पर तुम्हारे
तुम्हारे तजुरबे चस्पाँ है जैसे

जैसे मानो एक-एक लकीरें
मेरी बनायी पेंटिंग से निकल
तुम्हारे रुख़सार का साज बनती जा रही हो

तुम्हारे इंतजार के दिनों की ख़ामोश मायूसी
जैसे तुम्हारे चेहरे पर उतर अपनी रोशनी बिखेर रही है
चुपचाप
बिना शोरगुल किए

तुम्हारी आँखों की चमक अभी भी कुछ कम तो नहीं
मगर देखो
तुम्हारे बहते आँसुओं ने भी अब अपना रास्ता बना लिया हैं
तुम्हारे चेहरे पर

इन सब से बेख़बर,
तुम्हारी आवाज और भी कितनी मीठी हो चली हैं
आज भी तुम्हारी जुबान पर मेरा नाम
मेरे सीने में कितनी मिठास घोल देता हैं

मैं ना सही, मगर
वक़्त ने तुम्हारा बख़ूबी साथ दिया हैं
अपने साये में रख, तुम्हें किस क़दर आबाद किया हैं

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