Last modified on 14 जून 2008, at 01:38

उम्र ज्यों—ज्यों बढ़ती है / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

उम्र ज्यों—ज्यों बढ़ती है

डगर उतरती नहीं

पहाड़ी पर चढ़ती है.

लड़ाई के नये—नये मोर्चे खुलते हैं

यद्यपि हम अशक्त होते जाते हैं घुलते हैं.

अपना ही तन आखिर धोखा देने लगता है

बेचारा मन कटे हाथ —पाँव लिये जगता है.

कुछ न कर पाने का गम साथ रहता है

गिरि शिखर यात्रा की कथा कानों में कहता है.

कैसे बजता है कटा घायल बाँस बाँसुरी से पूछो—

फूँक जिसकी भी हो, मन उमहता, सहता, दहता है.

कहीं है कोई चरवाहा, मुझे, गह ले.

मेरी न सही मेरे द्वारा अपनी बात कह ले.

बस अब इतने के लिए ही जीता हूँ

भरा—पूरा हूँ मैं इसके लिए नहीं रीता हूँ.