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उम्‍मीद / मनीषा पांडेय

उम्‍मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्‍मीद होते हैं दिन
अनगिनत अधसोई उनींदी रातों
और उन रातों में जलती आँखों में
गहरी नींद बनकर दाखिल होती है

थकन और उदासी से टूटती देह में
थिरकन बन मचलने लगती है
सन्‍नाटे में संगीत सी घुमड़ती है
चुप्‍पी के बियाबाँ में
आवाज़ बन दौड़ने लगती है

सबसे अकेली, सबसे रिक्‍त रातों में
देह का उन्‍माद बन दाख़िल होती है उम्‍मीद
हर तार बजता है
हरेक शिरा आलोकित होती है
उम्‍मीद के उजास से

बेचैन समंदर की छाती में उम्‍मीद
धीर बनकर पैठ जाती है
मरुस्‍थल में मेह बन बरसती है
देवालयों में उन्‍मत्‍त प्रेम
और वेश्‍यालयों में पवित्र घंटे के नाद सी
गूँजती है उम्‍मीद

उम्‍मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्‍मीद होते हैं दिन