मिले अधरों से अधर
महके धरती अम्बर
छनी हाला अंगूरी।
उर में सागर छलके
मद से बोझिल पलकें
कपोल हुए सिंदूरी।
खुले लाज- भरे बोल
रहे मादकता घोल
साधें हो गईं पूरी।
मन में उठी तरंग
तन भी डूबा है संग
मिट गई सारी दूरी।
(10-5-84: कश्ती मार्च 85)