संसार के कल्प वृक्ष पर
कांटों के साये में
मन की उलझनों के
कितने धागे बुने है
हर दिन पाने और खोने
के बीच मन की तड़पन के
अनगिनत तीर चुभे है
उलझता जाता हूँ
क़ायनात के धागों को लेकर
इस अजीब-सी कशमकश में
ये ना जाने कितनी सदियों की उलझने है