उलझे हुए हिसाब मिले दिन।
अलस्सुबह से समी साँझ तक-
ठीक-ठीक मीजान न मिलते,
फटे हुए ईमान धरम ये-
मुझसे नहीं सिलाये सिलते;
जिन्हें फूलना था पलाश पर,
वो थूहर पर मिले खिले दिन।
अनगिन सूत्र, अंक, पद्धतियाँ,
क़लम दवात काग़ज़ों पर से,
हो न सके हम किसी फेल में
हो न सके ढाई आखर के;
खड़े हुए आतंक घेर कर,
उलझन और अजाब हुए दिन।
इनकी नियति हमारी क़िस्मत,
ये भी कर सकते हैं शिक़वे;
चढ़े हुए दिन रक्तचाप से,
मार रहे हैं मुझको लक़वे;
रख कर हाथ हिए पर कह दे,
किसको सुलझे हुए मिले दिन?
उलझे हुए हिसाब मिले दिन।