Last modified on 1 अप्रैल 2020, at 18:57

उलटती-पलटती ज़िंदगी / प्रगति गुप्ता

घबरा गई हूँ इस क़दर
समय की इन चालों से
कि अब नहीं है ख़ुद के
रहने का भी पता
उलटती पलटती ज़िंदगानी में...
छू कर गुज़रा है जो लम्हा
उसकी छुअन को चुपचाप ही
सहेजकर रख लेती हूँ
क्या पता कब
कम पड़ती साँसों को ज़रूरत हो
ऐसे ही एहसासों की...
भरोसे की भीत पर चढ़कर
कुछ हौंसले उम्मीदें
सुपुर्द किये हैं वक़्त ने,
उसी भीत के पीछे से
समेटने लगी हूँ यादें
अपने जीवंत से मौन में...
अब गुज़ारना चाहती हूँ या
गुज़र जाना चाहती हूँ
उम्र के इस पड़ाव के बाद
कि भीगूँ रहूँ हरदम
सदियों से छूटे एहसासों के तले
और गुज़रता रहे पुलों के नीचे से
पानी कुछ इस क़दर
इतने तेज बहावों के साथ
कि पड़ते रहे छीटें शेष बची उम्र में
सकूं की ठंडकों के साथ...