Last modified on 2 जनवरी 2014, at 17:07

उलटबाँसी / उद्‌भ्रान्त

मैंने दृष्टि से
लिया सुनने का काम
मेरी श्रवण-क्षमता ने
मुझे दिखाए स्तब्धकारी दृश्य
स्पर्श ने सुनाया
शास्त्रीय राग कल्याणी दादरा
जीभ को बनाकर कलम
वाणी की रोशनाई से
मैंने मंत्र लिखे सुबह के
और हाथ की उँगलियों ने
भजन गाया परिश्रम का
क्या ये सब
उलटबाँसियाँ हैं कबीर की?
कि इक्कीसवीं सदी के आते-आते
मेरे पाँव हो गए बालिग
और उन्होंने शुरू कर दिया सोचना
संपूर्ण गरिमा के साथ
यहाँ तक कि दिमाग
फटे-पुराने जूते पहनकर भी
दौड़ने लगा ओलंपिक की दौड़ में