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उषा आ रही है / त्रिलोचन

उषा आ रही है

जगत जग चला है

निशा धुल चली है

घिरी दृष्टि तम से

सहज खुल चली है

नई जिंदगी पाश में बंधनों के

नई चाल में आज अँगड़ा रही है

विहग गा रहे है

नखत खो चले है

क्षितिज छोर प्राची

अरूण हो चले है

नए स्वप्न जो आँख में आ बसे है

उन्हीं की प्रभा मौन लहरा रही है

सभी को जगाती ,

हँसाती खिलाती,

बुलाती, नए भाव

से गुदगुदाती ,

हृदय में उषा और धड़कन बढ़ती

घने कुहरे पर मंद मुसका रही है


(रचना-काल - 10-1-51)