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उषा यादव के लिए / कांतिमोहन ’सोज़’

(यह ग़ज़ल उषा यादव के लिए)

बसर ऐसी हुई है तीरगी में।
कि जी डरता है अब तो रौशनी में।

मैं ख़ुद तस्वीर होकर रह गया था
कोई जादू था उसकी खामुशी में।

कहीं वादा वफ़ा अब हो न जाए
मज़ा आने लगा है तिश्नगी में।

हर एक शै नामुकम्मल-सी लगे है
न जाने क्या कमी है ज़िन्दगी में।

नहीं जो दे सकी बन्दानवाज़ी
वो अक्सर मिल गया है बन्दगी में।

कहानी ख़त्म होती भी तो कैसे
कई जौहर छुपे थे सादगी में।

वो आए सोज़ तो सबने ये देखा
कहाँ पर क्या कमी थी चाँदनी में॥

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