ख़ामोश और शक़ की निगाहों से
घूरता हुआ ख़ुद को
टहलता हुआ अपने ही अन्दर
दुर्गन्ध मारते जूतों में रखे
अपनी आत्मा के पाँव
साँसों को फूलने से बचाता हुआ
टटोलता हुआ अंधेरे का आकाश
उसने सोचा--
बन्द कर दूँ यह सब
अपनी ख़ामोशी कॊ तोड़ूँ
अपने को शक़ की निगाहों से देखना छोड़ूँ
सिर्फ़ चढ़ूँ
सिर्फ़ चढ़ूँ
सिर्फ़ चढ़ूँ
अपने ही आइने में चमकता हुआ
बमकता हुआ अपने ही शब्दों में
अपनी ही हथेली में लिए हुए
सूरज की ताकत से भरी कविता का आकाश
उसने देखा--
पिघल रही है बर्फ़
पिघल रहा है विवशता का बोध
(रचनाकाल : 1981)