सबका जो था
तय न था
थी तो बस एक जिद
आवाज़ ने नहीं बसाया कोई घर
उसे गीत बनना था।
बस एक पागलपन था
कि कोई रंग न था
इस तरह
पानी को
नदी होना था।
जो अदेखी रही
सिर्फ स्पर्श को थी
वह फिर हवा न रही
प्राण हो गयी।
कि प्यार था
असंभव से
ख्वाब थे
किसी हैवान अमंगल के
शुरू होते सैंकड़ों डिग्री तापमान से
वह लौह हुआ।
टिका जो
गहन अन्धकार में
कोयला कोयला
दबा, तपा...
हजारों सालों तक
उसे तलाश थी
छाती में दमकती रौशनी की
हीरा हुआ।
नकार था
गले तक भरी घृणा थी
उसे रचनी थी दुनिया
बनना था ईश्वर
इस तरह वह आदमी हुआ।
तब परिणाम से डर नहीं था
तब तो यह भी पता नहीं था
कि यह
दुनिया का बनना है।