बात उन दिनों की है
मांडा के राजा की अचूक सियासी चाल से
जब मंडल-मंडल नहीं हुआ था देश ।
बात तब की है
सनातनी राजनेताओं के कमण्डल से
जब नहीं निकले थे राम ।
उस दिन काली मारा गया ।
यूँ तो वह अजनबी नहीं था
इस पुरबे के लिए
आना-जाना था, सलाम-बंदगी थी
और कम नहीं था कुछ रूतबा
फिर भी मारा गया वह ।
न कोई तलब, न तहक़ीक़ात,
दूसरे ही दिन
बारह-पन्द्रह कुनबों की बस्ती में
जलती रही आग ।
यह कुम्हारों की बस्ती थी
वे आग से खेलते थे,
मिट्टी के पक जाने के लिए जलाते थे आँव ।
उनके दिलों में हरे-भरे रहते थे घाव
वे बकरियाँ और मुर्गियाँ पालते थे
उनके खूँटों पर
किसी ने नहीं देखी गाय पहले कभी
और वे इन्हें अपनी बेटी से कम नहीं चाहते थे ।
इस चाहत का अन्दाज़ा नहीं था काली को
उस दिन काली मारा गया ।
यूँ तो काली का मारा जाना
इतिहास के लिए नया नहीं था,
बस यह चाहत नई-नई थी ।