उस शाम जब लाल केसरिया वह सेब डूब गया
खारे शरबत में,
मैं उखड़ी दलान की सीढ़ियों पर बैठी काट रही थी
कोहड़े से धुन्धले दिन को,
पाँव तले तब कितनी नदियाँ गुज़र गईं,
कितने पर्वत खड़े हो गए आजू -बाजू,
रागी-सी मेरी आँखों में मक्के की लाखों बालियाँ
उमड़-उमड़़ कर खड़ी हो गई,
मेरे पाँवों के नीचे नदी जुठाई चिकनी मिट्टी,
तन पर पर्वत आलिंगन के श्वेत तुहिन चिन्ह,
आँखों में डूबे हरे मखमल से झाँक रही
उजली मोती ।
उस शाम चन्द चवन्नी विमुद्रित
खुल गई नीली साड़ी की खूँट से,
झुककर नहीं समेटा हाथों ने,
पहली बार नयन ने किया मूल्यांकन
खोटे सिक्कों का ।
पहली बार कमर नहीं झुकी
मूल्यहीन गिन्नियों की ख़ातिर,
पहली बार वह खूँट खुली
और फिर नहीं बंधी
अर्थ, परम्परा,खूँटे और रिक्त से