उस शाम, जब
गूँगे हो चले थे शब्द
तब, कितना वाचाल
हो उठा था मौन...!
ठंडी नरम घास पर
करवटें बदलती
रोशनी के वक्ष पर
धड़कनों की पगध्वनि
पायल-सी बज रही थी
ऐसे में…
तुम्हारी आँखों में उभरती
नई पहचान
संबंधों की कोई
तस्वीर गढ़ रही थी,
उस तस्वीर का
एक-एक रंग
मेरे भीतर तक
उतरता चला गया था...!
उस क्षण को
संपूर्ण जी लेने के
संकल्प पर
दृढ़ होती हाथों की पकड़
इस बात का
प्रमाण थी, कि
मन में उभरते
इंद्रधनुषी रंग
झूठे नहीं होते...!